मीरा बाई जी का अंतिम पद

मीरा बाई जी का अंतिम पद

मीरा बाई जी का अंतिम पद ~
मीराबाई जिन्हें बाल्यावस्था में ही गिरधर गोपाल से प्रीति हो गई, खेल खेल में गिरधर को ही अपना पति मान बैठी और गन्धर्व विवाह हो गया ।

मीराबाई ने श्री रविदास जी को अपना गुरु बनाया, जिन्हें संत रैदास जी के नाम से भी जाना जाता है,उनसे ही दीक्षा ग्रहण की , मीराबाई को आध्यात्मिक ज्ञान श्री गुरुदेव भगवान से ही प्राप्त हुआ,जब मीराबाई सयानी हुई, तो पिता जी ने ब्याह के लिए मन की बात जानना चाही,पर मीराबाई ने ब्याह करने से मना कर दिया, लेकिन समाज का डर पिता को सताता रहा, अन्ततः उन्होंने मीराबाई का ब्याह बिना उसके मन के ही कर दिया।

मेड़ता (कुड़की) में जन्म लिया, मेवाड़ में ब्याह हुआ, ब्याह के बाद भी मीराबाई पूरी तरह से पवित्र थी, मीराबाई में इतना तेज था, मीराबाई के तेज़ और भक्ति भाव कि जिद्द के प्रभाव से कभी भी उनके पति ने उनके पास आने की इच्छा नहीं जताई।

मीराबाई ने एक बार अपने पति (मिथ्या जगत की परम्पराओ या मिथ्या समाजियो के अनुसार समझे) से एक ऐसी बात कह दी, जिससे सामाजिक व्यापरीक कर्म कांड से पति होने के बाद भी उन्होंने मीराबाई को कभी भी स्पर्श नहीं किया। उन्होंने कहा कृष्ण को हम बचपन में ही अपना मान चुके थे। सनातन अनुसार गन्धर्व विवाह और ब्रह्म विवाह तो गिरधर गोपाल से कब का हो चूका । अब फिर इस हाड़ मास के देह का सामाजिक दान और खरीदी का क्या प्रजापत्य विवाह (पिता, राजा किसी बड़े द्वारा दान दिया जाना या भाव से किसी द्वारा खरीदा जाना) हुआ । वैश्य प्रवर्ती के भाव से एक विवाह नाम पर पिता ने इस शरीर को दान दिया और आप ने ये खरीद लिया। इस शरीर का क्या विवाह होगा वह तो विवाह नाम पर समाज की वैश्य प्रवर्ती होगी।

शास्त्रो अनुसार तो मन से हम कुवारी नहीं है मन ने बचपन में ही गिरधर गोपाल से ब्रह्म और गन्धर्व विवाह कर लिया था। उस विवाह बाद तो ये प्रजापत्य विवाह भाव से एक सामाजिक दबाव, धोखे और लेन देन की वैश्य प्रवर्ती ही हुईं। श्री कृष्ण प्रति मन से हम कुवारी नहीं थी, तो कुवारी होने का कह कर दिया वचन तो सत्य में विवाह का वचन देना ही न रहा, एक भी वचन असत्य सिद्ध हुआ तो विवाह कैसा ।

मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।

जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोई।

छाँड़ि दई कुल की कानि, कहा करिहै कोई।

मन प्राण के बिना इस हाड़ मांस मज्जा के बेजान समझे इस अछूत देह का क्या विवाह होगा। समाज के दबाव और धोखे से बने देहिक व्यापारिक संबंध के विवाह को मीरा ने विवाह नहीं मान धोखा और वैश्य प्रवर्ती माना । सबके भगवान गिरधर गोपाल के प्रति दिए प्रेम भाव के अधिकार को अब विवाह बाद किसी दूसरे को देना भगवान के प्रति अपराध होगा। वो बात वैश्य प्रवृति प्रिय समाज अनुसार माने पति भोजराज के हृदय में गहराई से जा कर बैठ गई।

भोज राज मीरा पास आते उससे पहले विवाह के कुछ समय बीतने के बाद ही मुगलों कि सैना से युद्ध करते समय ही भोजराज की मृत्यु हो गई।

ससुर भी नहीं रहें, ससुराल वालों और देवरों ने मीराबाई को बहुत परेशान किया,ससुराल में जो अत्याचार उन पर हुआ जिसका बखान नहीं किया जा सकता, बहुत सतायी गई मीरा, लेकिन श्री गिरधर गोपाल जी के प्रति मीरा की प्रीति , मीरा का प्यार नहीं कमजोर हुआ, फिर श्री गिरधर गोपाल जी की प्रेरणा से बृंदावन में आ गई।

बृंदावन में मीराबाई बहुत समय तक रही, धीरे धीरे वृंदावन में मीराबाई की लोकप्रियता इतनी बढ़ गई, बहुत से लोग अब मीराबाई से मिलने आने लगे, कुछ अहंकार- ईर्ष्या से परेशान भी करते थे।

मीराबाई ने एक दिन श्री ठाकुर जी से प्रार्थना किया,हे नाथ, मुझे इस वृंदावन से कहीं दूर ले चलो, यहां रहकर मेरा भजन नहीं हो पा रहा है,तब श्री ठाकुर जी की प्रेरणा से मीराबाई द्वारिका पहुंची, और वहां रहने लगी, मीराबाई दिन रात श्री गोपाल जी का भजन किया करती,अब तो स्थिति यह हो गई, पहले मीराबाई कृष्ण से प्रेम करती थी, लेकिन अब कृष्ण को मीराबाई से प्रेम हो गया।

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लोकोक्ति में कहा जाता है की रुक्मणि, सत्यभामा, जामवंती सब भेष बदलकर मीराबाई के पास कन्हैया का भजन सुनने आया करती, कभी कभी तो द्वारकाधीश भी भेष बदलकर पहुंच जाते, शंकर जी कैलास से पार्वती के साथ भेष बदलकर मीराबाई के पास भजन सुनने आया करते। मीराबाई के मेवाड़ छोड़ते ही वहां अकाल पड़ गया था।

भुखमरी आ गई,लोग दाने दाने को मोहताज हो गये,तब वहां के बुद्धिजीवी, संत जन एकत्रित हुए और विचार विमर्श किया, ऐसा कौन सा अपराध मेवाड़ से हुआ है,जो यहां ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई,तब सभी ने माना मीराबाई के साथ जो हुआ वह बहुत ही ग़लत था हम सभी से वैष्णव अपराध हुआ है, हमें तत्क्षण मीराबाई से अपने किये की क्षमा मांगना चाहिए और कुछ समय बाद ही मेवाड़ के कुछ ज्ञानी जन ,संत, बुद्धिजीवी, मीराबाई को वापस लाने के लिए द्वारिका की तरफ कूच किये, मीराबाई ने वापस जाने से मना कर दिया,तब वो सभी समुद्र किनारे गोमती के तट पर अनशन पर बैठ गए।

मीराबाई को जब पता चला, कि मेवाड़ से आये सभी वैष्णव संत जन अनशन पर हैं,तो वो जाकर सभी संतों वैष्णवों को आदर से प्रणाम किया ,उन सभी को बहुत समझाने का प्रयास किया, मीराबाई ने कहा हम बचपन से ही गोपाल के हो गए हैं मन में गोविन्द को एक बार अपना मान चुके। समाज के थोथे आडंबर, झूठ धोखे में रख, झूठे बनाए संबंध, बिना प्रेम के तो ये समाज के व्यापारीक कर्म कांड सामाजिक विवाह आदि हमें हमारे वर गिरधर गोपाल से अलग नहीं कर सकते।

हमें उनसे अलग मत करिए ये हमारे बचपन के मित है । इनसे हमारा गन्धर्व विवाह हो रखा है, झूठो के समाज का विवहा झूठ है। लक्ष्मी और रुक्मणि ने विष्णु और कृष्ण से उसी तरह हमने मन में गिरधर गोपाल से गन्धर्व विवाह कर लिया था, झूठ धोखे में रख समाज का दूसरा झूठ धोखे का विवाह चाहे कैसे भी हो हमारा विवाह नहीं है, वह झूठ और धोखा ही है । मेवाड हमारा ससुराल नहीं है भोज राज हमारे पति नहीं है। हमारा विवहा हमारे गिरधर गोपाल से हो रखा है, हम न जाएंगे।

जब सभी न जाने को तैयार हुए; तब मीराबाई ने उन सभी संतों, वैष्णवों के सम्मुख में एक शर्त रखी यदि मेरे द्वारिकाधीश मुझे जाने के लिए कह देते हैं, तभी मैं वापस आ सकती हूं, मीराबाई सभी लोगों के साथ श्री द्वारिकाधीश पहुंची, वहां मंगला की आरती हुई ही थी, जैसे ही मीराबाई ने श्री द्वारकाधीश जी का मुख मण्डल देखा,नयन सजल हो गये, अश्रु धार बह पड़ी , वाणी गदगद हो गई तभी मीराबाई ने श्री द्वारकाधीश जी को अपने जीवन का अंतिम पद सुनाया।

साजन सुध ज्यौ जानो त्यौ लीजो,

तुम बिन मेरा और न कोई,

कृपा रावरी कीजो,

दिवस न भूख ,रैन न निदरा,

यूं तन पल पल छीजो,

साजन सुध ज्यौ जानो त्यौ लीजो,

मीरा के प्रभु गिरधर नागर,

मिल बिछुरन मत दीजो…

इतना सुनते ही, श्री द्वारकाधीश से रहा न गया श्री द्वारकाधीश साक्षात मीराबाई के सम्मुख में प्रगट हो गए, मंदिर के गर्भ गृह में इतना प्रकाश फैल गया मानो सैकड़ों सूर्य एक साथ प्रगट हो गए हो, मीराबाई गर्भगृह की तरफ बढ़ी जा रही है, जैसे ही मीराबाई प्रभु के समीप पहुंची, मेरे श्री द्वारकाधीश भगवान ने आगे बढ़कर अपने दोनों हाथों को फैला लिया, मीराबाई भगवान के हृदय से लिपट गई, श्री द्वारकाधीश भगवान ने मीराबाई को सदेह अपने अंदर प्रकाश में समा लिया, बाहरी प्रकाश घटता गया। मीराबाई अन्य, जीवों और पिछले जन्मों तरह के पुनरावृत्ती मार्ग पितृयान में जाने के बजाय अपुनरावृत्ती मार्ग देवयान के भगवततत्त्व से योग को प्राप्त हो गई।

जैसे जैसे बाहर प्रकाश घटा सब लोग मीराबाई को खोजने लगे,तब तक पुजारी जी की नजर भगवान के श्री विग्रह पर पड़ी, तो पुजारी जी ने इतना देखा,कि मीराबाई की चुनरी का अंतिम छोर श्री द्वारकाधीश जी के हृदय में प्रविष्ट होता जा रहा है,

इस प्रकार इसी कलिकाल में

मीराबाई प्रेम – भक्ति से भगवान को प्राप्त/ योग हो गई!

प्रेम है तो इसे पढ़ते ही नयन सजल हो जाएंगे….

!! सादर जय सियाराम !!